राय अभिषेक
रायबरेली,नवसत्ता:डॉक्टर्स डे विशेष में आज आपको जिले के वरिष्ठ सर्जन डॉक्टर आशा शंकर वर्मा से रूबरू कराते हैं।बुलंद हौसले के साथ जिनके द्वारा किये गए एक कार्य का उदाहरण आज भी उनके कॉलेज में दिया जाता है।
जब हमने डॉ. आशा शंकर वर्मा से उनके मेडिकल प्रोफेशन में आने के पीछे की प्रेरणा स्रोत के बारे में जानना चाहा तो उन्होंने बताया,मैं डॉक्टर बनूं ऐसा मेरी माँ चाहती थी। मेरे पैदा होते ही उनकी ये इच्छा थी पर ईश्वर की मर्जी थी कि मुझे माँ का दुलार न मिले और जब मैं 3 बरस का था, मेरी माँ इस दुनिया से चली गई। थोड़ा बड़ा हुआ तो घर वालो से माँ की इच्छा का पता चला और उनकी इच्छा को पूरा करना ही मेरा लक्ष्य बन गया। 1982 में मैने महारानी लक्ष्मी बाई मेडिकल कॉलेज, झांसी में एमबीबीएस में दाखिला लिया और वही से एमएस भी करके 1992 में बाहर आया था।
कॉलेज के एक वाकये को उन्होंने याद करते हुए बताया कि जब मैं एमएस कर रहा था तो रात में मेरी ड्यूटी इमरजेंसी में लगती थी। एक रात लगभग 2 बजे से सुबह 8 बजे तक,एक के बाद एक मरीज आने शुरू हुए जिनकी आंते फटी हुई थी। मैंने किसी की मदद का इंतेज़ार करने के बजाय सारी रात खुद ही सबको ऑपरेट किया। सुबह जब हमारे कंसलटेंट डॉ. राजेश सिन्हा राउंड पर आये तो मैंने उन्हें पूरा मसला बताया और उन्हें अपने पेशेंट्स दिखाये। वो हैरान होकर मुझसे बोले ” तुमने एक रात में एक दर्जन आपरेशन कर डाले और मुझे बुलाया तृक नही, अगर एक भी मरा तो मैं तुम्हारा एमएस नही होने दूंगा।” खैर उन 12 में से सिर्फ 2 सर्वाइव नही कर पाये, और मेरे एमएस पर भी कोई प्रभाव नही पड़ा। बतौर सर्जन ये एक अचीवमेंट था और आज भी कॉलेज में मेरे इस काम का उदाहरण दिया जाता है।
कॉलेज के बाद से आज तक अनेको क्रिटिकल केस मैंने ऑपरेट किये है। जब मैं जिला अस्पताल में था तो 1998 में एक बार हाइपोनेटरोमा जिसे किडनी का ट्यूमर कहते है, का मरीज मैने ऑपरेट किया था। जो ट्यूमर मैंने निकाला था उसका वजन ढाई किलो का था। आपरेशन के बाद वो मरीज स्वस्थ भी हुआ और 6 महीने तक मेरे फॉलोअप में रहा।
डॉक्टर्स डे पर मेरा अपने साथियों के लिए एक संदेश है कि इलाज करते वक्त अमीर गरीब का भेदभाव न करे। जिन डॉक्टर के मन मे मरीज को देखते ही उसके स्टेटस की बात आती है, नही आनी चाहिये, बल्कि एक समान एटीट्यूड और व्यवहार सबके साथ होना चाहिये। आदमी चाहे बड़ा हो या छोटा, डॉक्टर को सबको समान रूप से अटेंशन देना चाहिए और इलाज करना चाहिए। मुझे गर्व होता है कहने में कि मैं एक किसान का बेटा हूँ और गांव में पढ़ा लिखा हूँ। मेरे लिए एक फटी धोती वाला मरीज कोट टाई वाले मरीज के बराबर हैसियत रखता है और इलाज में कोई फर्क मैं नही करता।