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मथुरा के इसी गाँव में होलिका की गोद में बैठे भक्त प्रहलाद 

पाँचवी बार होली की जलती आग से निकलेगा पंडा
राजेंद्र पांडेय
फालेन (मथुरा),नवसत्ता। फालेन गाँव के पुरोहित मोनू पंडा के मुताबिक धार्मिक कथानुसार सतयुग में भक्त प्रहलाद का जन्म इसी स्थान पर हुआ था। उनके पिता दैत्यों का राजा हिरण्यकशिपु बहुत ही अत्याचारी और अधर्मी था, परन्तु उसका पुत्र प्रहलाद बहुत ही दयालु और धार्मिक था और भगवान विष्णु का परम भक्त था। क्योंकि हिरण्यकशिपु विष्णु विरोधी था, इसीलिए उसे यह पसन्द नहीं था।
हिरण्यकशिपु को ज्ञात था कि ब्रह्मा के वरदान के अनुसार उनकी बहन होलिका को अग्नि जला नहीं सकती थी, अत: राजा हिरण्यकशिपु ने भक्त प्रहलाद को मारने के लिये योजना बनाई। भक्त प्रहलाद को बुआ होलिका की गोद में बैठने का बताया तो उन्होंने अपने जन्म स्थान यानि इसी स्थान (फालेन गाँव) पर होलिका की गोद में बैठने का आग्रह किया। उनकी बात स्वीकार करके उन्हें इसी स्थान पर होलिका ने बालक भक्त प्रहलाद को अपनी गोद में लेकर धधकती अग्नि में प्रवेश कर गयी। भक्ति की शक्ति के प्रताप के कारण प्रहलाद तो बच गये, परन्तु होलिका रूपी पाप अग्नि की उन पवित्र लपटों में जलकर खाक हो गई।

इस होलिका दहन परंपरा का निर्वहन करते हुए इसी गाँव में होलिका दहन के समय एक पुरोहित, जिसे पण्डा कहा जाता है, नंगे पाँव जलती हुई अग्नि के बीच से निकलता हुआ एक कुण्ड में कूद जाता है। आश्चर्य का विषय यह है कि उस पर जलती हुई अग्नि का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यह जलती हुई अग्नि से प्रहलाद के अनाहत, अक्षत रूप से निकलने का प्रतीक है।
फालेन गाँव में स्थित गोपालजी मंदिर के संत द्वारा फालेन में मंदिर और कुंड निर्माण की कहानी के मुताबिक मान्यता है कि गाँव के निकट ही तप कर रहे साधु को स्वप्न में डूगर के पेड़ के नीचे एक मूर्ति दबी होने की बात बताई। इस पर गाँव के कौशिक परिवारों ने खुदाई कराई जिसमें भगवान नृसिंह और भक्त प्रहलाद की प्रतिमाएँ निकलीं। प्रसन्न होकर तपस्वी साधु ने आशीर्वाद दिया कि इस परिवार का जो व्यक्ति शुद्ध मन से पूजा करके धधकती होली की आग से गुजरेगा, उसके शरीर में स्वयं भक्त जी विराजमान हो जाएंगे। आग की ऊष्मा का उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
इसके बाद मंदिर बनवाया गया। पास ही प्रहलाद कुंड का निर्माण हुआ और तब से आज तक प्रहलाद लीला को साकार करने के लिए फालेन गाँव में आसपास के पाँच गांवों की होली रखी जाती है। मंदिर पर पूजा अर्चना और कुंड में आचमन करने के बाद 10 से 15 फुट की होली को अंतिम रूप दिया जाता है। धधकती होली से गुजरने का चमत्कार करने वाले पुरोहित जिन्हें पंडा कहा जाता है फाल्गुन शुक्ल एकादशी से ही अन्न का परित्याग करने के बाद पूजा पर बैठता है और होलिका दहन के दिन फालेन गाँव के प्रहलाद कुण्ड में स्नान करने और वहां स्थित प्राचीन मन्दिर में पूजा करने के पश्चात ग्राम का एक पण्डा भक्त प्रह्लाद के आशीर्वाद से सज्जित माला को धारण किये हुए होली की पवित्र अग्नि में प्रवेश करता है और धधकते अंगारो पर चलते हुए सकुशल बाहर निकल आता है। रात्रि के जिस समय यह पण्डा होली की धधकती ज्वाला को पार करता है, तब सारा गांव ढोल-नगाड़ों और रसियों की आवाज से गुंजायमान हो उठता है।
साहस और भक्ति का ये अनोखा कृत्य यहां मौजूद सभी दर्शकों को अचंभित कर देता है। फालेन गाँव में होलिका दहन से पहले पाँच गाँव के वाशिंदे योजना बनाकर इसी मंदिर के परिसर में होली उत्सव पर जमकर नृत्य का आनंद लेतें है जो बसंत पंचमी से शुरू हो जाता है जो 40 दिन लगातार चलता है।
फालेन ग्राम में कई वर्षों से चली आ रही अनूठी परंपरा का साक्ष्य बनने के लिए भारी संख्या में देशी ही नहीं, अपितु विदेशी पर्यटक भी होली से पूर्व यहां जमा होने लगते हैं और होली के इस अनोखे उत्सव का आनन्द लेते हैं।

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