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रह गयी स्मृतियां, विलुप्त होती शादी विवाह की पररम्परायें

रमाकांत बरनवाल

सुलतानपुर,नवसत्ता :– शादी विवाह की पुरानी परम्पराएं अब मात्र एक स्मृति ही रह गयी है जिसका स्थान अब चकाचौंध करती व्यवस्थाओं व रश्मों रिवाजों ने ले लिया।इसी सब बातों पर कादीपुर क्षेत्र के खिदिराबाद गांव निवासी युवा साहित्यकार व लेखक डा आशीष मिश्र ‘उर्वर’ अपने विचार व्यक्त करते हुए नवसत्ता दैनिक समाचार पत्र प्रतिनिधि से अपनी जुबानी बताया। उन्होंने कहा कि पहले समय में गांव में न टेंट हाउस थे और न ही कैटरिंग की कोई व्यवस्था, थी तो बस मानवता एवं सामाजिकताऔर गांव में जब कोई शादी व्याह होता तो घर घर से चारपाई बिस्तर एवं बर्तन जैसे सामान पड़ोसियों से मांग कर आ जाया करते थे जिससे गांववासी अपने को धन्य समझते थे जहां गांव की महिलाएं ही एकत्र हो कर खाना आदि बना दिया करती थी।

उन्होंने बताया कि अब जहां बिना पार्लर पहुंचे दूल्हन का शौक पूरा नहीं होता वहीं पहले पार्लर जैसी कोई व्यवस्था नाम की चीज नहीं होती थी वहां खुद घर की महिलाएं ही सजाने संवारने का कार्य कर लेती थी व हर रस्म पर गीत या गारी खुद ही गाया करती थी और तब कानफाड़ू अनिल डीजे सुनील डीजे अनमोल डीजे जैसी व्यवस्था ही नहीं थी और न ही कोई आर्केस्ट्रा जैसी फ़ूहड़ नाच व्यवस्था।

पुराने रीति रिवाजों में गांव के कुछ चौधरी टाइप के लोग शादी विवाह या अन्य काम काज को देखने में पूरे दिन लगे रहते थे साथ ही साथ हंसी-मजाक व मौज मस्ती लगा रहता था उसी दौरान समारोह का काम भी निपटता रहता था। कहा कि पहले शादी व्याह में गांव के लोग बारातियों के खाने से पहले खाना नहीं खाते थे क्योंकि वहां घरातियों के इज्जत का सवाल जो होता था पर अब घराती पहले ही खा-पीकर फिट दिखते हैं। गांव की महिलाएं गीत गायन के साथ साथ अपने काम को भी निपटा लेती थीं और सच कहूं तो उस समय लोगों में सामाजिकता के साथ समरसता भी होती थी। खाना आदि परसने का कार्य गांव के नवयुवक गैंग जिम्मेदारी से संभाल लेते थे। कोई थोड़े सम्पन्न घर की शादी होती थी तो टेप बजा दिया जाता था जिसमें एक कामन गाना बजता था…’ मैं सेहरा बांध के आऊंगा मेरा वादा है’ और दूल्हे राजा भी उस दिन किसी युवराज से कम नहीं समझते थे।

बताया कि दूल्हे के आस पास नाऊ हमेशा साये की तरह मौजूद होता था और समय समय पर दूल्हे का बाल संभालते रहता था, ताकि दूल्हा सुंदर दिखाई दे, फिर द्वार पूजा होती है और फिर रात-भर पंडित जी के मंत्रोच्चार से विवाह कार्य सम्पन्न होता था। उसके बाद कोहबर कार्यक्रम शुरू होता था, जिस रस्म में दूल्हा दुल्हन को दो मिनट के लिए एक साथ छोड़ दिया जाता था जिसमें एक दूसरे को निहारने में दो मिनट बीत जाता था, उसके बाद खिचड़ी में गांव की महिलाएं जमकर गाली गीत गाती थी और यही वह रस्म है जिसमें दूल्हे राजा जेम्स बांड बन जाते हैं और कहते थे हम नहीं खायेंगे खिचड़ी फिर उनको मनाने कन्यापक्ष से धुरंधर लोग आते हैं लेकिन बात नहीं बनती क्यों कि दूल्हे की सेटिंग बड़े भाई या चाचा बाबा से पहले से ही होती थी उसी दौरान आधा घंटा लगभग रिसियाने कोहानें का कार्य चलता था इस दौरान दूल्हे के छोटे भाई सहबाला का भी भौकाल टाइट रहता था और लगे हाथ वह कुछ न कुछ लहा ही लेते तब फिर एक जयघोष के साथ खिचड़ी का एक निवाला दूल्हे के मुह में जाता और तब एक मुस्कान के साथ वर वधू पक्ष दोनों इस पल का आनंद लेते थे।

पुराने कथानक को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं कि खिचड़ी रस्म के बाद अचर धरउआ रस्म होता है जिसका दारोमदार घर की महिलाएं संभालती थी जिसमें महिलाओं द्वारा दूल्हे को तोहफा स्वरूप कुछ उपहार भी दिया जाता था और यह सब बीतने के बाद विवाह समीक्षा व चर्चा होती थी। इसके बाद लड़कियां जूता चुराती थी और 101 रुपए में मान भी जाती थी। फिर गिने चुने बुजुर्गों द्वारा माडौ यानी विवाह के कार्यक्रम हेतु अस्थाई छप्पर को हिलाने का कार्य किया जाता था, और विदाई के समय नगद नारायण कड़ी कड़ी 10 रूपए की नोट कहीं कहीं 20 की भी मिल जाती थी जिससे सुखद अनुभूति होती थी जिसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता,आज की पीढ़ी उस वास्तविक आनंद से वंचित हो चुकी है और यह आज की पीढ़ी के कल्पना के परे है।

लोग बदल रहे हैं और परम्पराओं में भी बदलाव हो चुका है। सबका सार व मतलब सिर्फ एक ही है कि आज हमारा समाज अपनी परंपरा को छोड़ रसियन कल्चर की तरफ बढ़ रहा है, जो कि समाज के लिए सिर्फ और सिर्फ छलावा है। आज की वैवाहिक पद्धति सब आर्टिफिशियल तरीके से किया जा रहा है क्योंकि बहुतायत संख्या में शादियां मैरेज हॉल में सम्पन्न होने के कारण बहुत से रीति रिवाजों पर जैसे ताला लग गया है। उन्होंने कहा कि पहले समय में शादी विवाह गांव गिरांव के छोटे तबकों का एक सहारा व साधन रहता था अब सब एक स्थान पर ही सिमटकर रह गया है जिससे वह प्रेम व्यवहार एक दिखावा मात्र रह गया है।

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