लखनऊ, नवसत्ताः सदियों से चले आ रहे गुरु और शिष्य के रिश्ते को आज हम गुरु पूर्णिमा के रुप में मनाते हैं। आज का पूरा दिन गुरु और शिष्य के लिए अत्यधिक विशेष होता है, गुरु पूर्णिमा के दिन सभी शिष्य अपने गुरु के पास नतमस्तक होकर जाते है और उन्हें पूरे आदर और सम्मान के साथ प्रणाम करते हैं।
कहते है जीवन का सबसे प्रथम गुरु किसी के लिए भी उसके माता- पिता होते हैं, क्योंकि वह अपनी संतान को समाज में उठने, बैठने, बोलने और यहां तक की चलने का तरीका सिखाते हैं। लेकिन वास्तव में गुरु कोई शरीर नहीं है, ब्लकि एक तत्व है जो पूरे ब्रह्मांड में विद्यमान है। गुरु और शिष्य का संबंध शरीर से परे आत्मिक होता है। गुरु पूर्णिमा गुरु से दीक्षा लेने, साधना को मजबूत करने और अपने भीतर गुरु को अनुभव करने का दिन है। गुरु को याद करने से हमारे विकार वैसे ही दूर होते हैं जैसे प्रकाश के होने पर अंधेरा दूर हो जाता है। चित्त में पड़े अंधकार को मिटाने वाला कोई और नहीं, बल्कि गुरु ही होते हैं। गुरु ही हैं जो जीना सिखाते हैं और मुक्ति की राह दिखाते हैं।
कहते हैं ‘हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर,’
अर्थात हरि के रूठने पर तो गुरु की शरण मिल जाती है,
लेकिन गुरु के रूठने पर कहीं भी शरण नहीं मिल पाती।
भागवत गीता में गुरु के रुप में अर्जुन को पथ दिखाने वाले श्री कृष्ण के रुप में अर्जुन के गुरु ही थे जो बार- बार अर्जुन को सही मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित कर रहे थे। ठीक उसी प्रकार आपके जीवन में भी एक ऐसे ही गुरु की आवश्यकता होती है जो आपको अंधेरे में भी प्रकाश की किरणों की तरह उजागर करके आपको सही पथ पर चलने की शिक्षा दें।