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डॉक्टर्स डे विशेष:जानिए अपने डॉक्टर के अनसुने किस्से,मिलिए रायबरेली के मशहूर सर्जन डॉक्टर आर एस मालवीय से

गरिमा

युवक की हालत अत्यंत ही चिंताजनक थी। उसे बचाया जाना मुश्किल ही लग रहा था। बस सांसे ही चल रही थी।मैंने युवक के पिता से कहा कि आप इन्हें लखनऊ ले जाइए यहां इन्हें बचा पाना मुश्किल है। तब युवक के पिता ने डबडबाई आंखों एवं अधीरता के साथ कहा, क्या आप एक बार अपनी तरफ से कोशिश भी नहीं करेंगे…..

रायबरेली,नवसत्ता:डॉक्टर्स डे स्पेशल की इस श्रंखला में हमने जिले के मशहूर वरिष्ठ सर्जन डॉ. आर.एस. मालवीय से बात की।उन्होंने अपनी ज़िन्दगी से जुड़े कुछ अनसुने किस्से सुनाते हुए बताया,बचपन से मन में सेवाभाव था। समाज के लिए कुछ करने की तड़प थी।यह सपना तब साकार हुआ जब 1972 में पीएमटी की प्रवेश परीक्षा पास की।मोतीलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज इलाहाबाद में प्रवेश मिला।यहां से एमबीबीएस के बाद सौभाग्य से एमएस में भी यहीं प्रवेश मिल गया।
कॉलेज के दिनों की याद करते हुए डॉक्टर मालवीय ने बताया,जब एम एस कर रहे थे तब प्रैक्टिकल के दौरान उन्हें व अन्य स्टूडेंट्स को मास्क पहनना पड़ता था।मास्क के कारण सारे सहपाठी देखने पर एक जैसे ही लगते थे।अक्सर गुरुजनों को पहचानने में धोखा हो जाता था। इस कारण से कई बार ऐसा भी होता कि ग़लती कोई करता और बाद में डांट किसी और को खानी पड़ती।
डॉक्टर मालवीय एक अन्य किस्सा याद करते हुए बताते हैं, बात तब की जब एमबीबीएस कर रहा था। कॉलेज के संस्थापक जो प्रिंसिपल भी थे। स्टूडेंट्स को मोटिवेट करने के लिए उन्होंने एक प्रोपोजल दिया।कहा जो भी विद्यार्थी एमबीबीएस में टॉप करेगा स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर वही झंडारोहण का अधिकारी होगा। उन्होंने इस परंपरा को निभाया भी।उस साल एमबीबीएस में जिस छात्र ने टॉप किया उससे ही 15 अगस्त को झंडा रोहण करवाया।जबकि हर साल यह कार्य या तो वे स्वयं करते थे या फिर किसी मुख्य अतिथि के द्वारा संपन्न होता था।
डॉक्टर मालवीय ने बताया कि जब वह मेडिकल प्रोफेशन में आए तब संसाधन सीमित होते थे।हालांकि मन में सेवाभाव और अपने कर्तव्य के प्रति समर्पण की भावना होती थी।वह कहते हैं, जब रायबरेली में नए-नए आए थे तब जिला अस्पताल में कोई इमरजेंसी वार्ड नहीं हुआ करता था। बहुत अच्छी चिकित्सीय सुविधाएं भी नहीं हुआ करती थी। छोटे-मोटे केस तो यहीं ठीक कर लिए जाते थे। जबकि कोई सीरियस केस आ जाता था तो उसे लखनऊ रेफर करना पड़ता था। उन दिनों लखनऊ जाना भी हर किसी के लिए आसान नहीं था।तब ट्रेन बस वगैरह की उचित सेवाएं उपलब्ध नहीं थी।डॉक्टर मालवीय बताते हैं,एक बार उनके पास एक 16-17 वर्ष के एक युवक का एक्सीडेंट का केस आया था। युवक की हालत अत्यंत ही चिंताजनक थी। उसे बचाया जाना मुश्किल ही लग रहा था। बस सांसे ही चल रही थी।मैंने युवक के पिता से कहा कि आप इन्हें लखनऊ ले जाइए यहां इन्हें बचा पाना मुश्किल है। तब युवक के पिता ने डबडबाई आंखों एवं अधीरता के साथ कहा, क्या आप एक बार अपनी तरफ से कोशिश भी नहीं करेंगे,उनकी बात ने मुझ पर भावनात्मक असर किया।मैंने तय किया कि अपनी बदनामी की परवाह न करते हुए एक बार कोशिश जरूर ही करूंगा। मैंने उस युवक के पिता से मंजूरी पत्र पर हस्ताक्षर करवाए और ऑपरेशन किया। ऑपरेशन खत्म होने के बाद जब उस मरीज को बाहर लाया गया तो उसके परिवार वालों को भी उम्मीद नहीं थी कि वह बच पाएगा। 3 दिनों के ऑक्सीजन सपोर्ट पर रहने के बाद वह बच गया और स्वस्थ होकर वापस अपने घर गया। इसके बाद मुझे अत्यधिक आत्म संतुष्टि का अनुभव हुआ। बचाने वाले तो भगवान ही होते हैं, हम तो बस जरिया होते हैं पर हमें कभी भी कोशिश नहीं छोड़नी चाहिए तथा अपने पेशे के प्रति कर्तव्यनिष्ठ होना चाहिए।
आजकल के हालातों को देखकर डॉक्टर मालवीय कहते हैं, जब पूरी दुनिया में हर तरफ संकट छाया हुआ है। उसमें लोगों को अपनी सुरक्षा स्वयं करनी है।वैक्सीनेशन मुख्य बचाव है। सभी को वैक्सीनेशन जरूर करवाना चाहिए। हमारी सरकार जो हमारे लिए दवाएं एवं वैक्सीन उपलब्ध करवा रही है तो हमें अपनी सरकार पर विश्वास करना चाहिए।इस तरह हम सरकार पर विश्वास कर राष्ट्र के सहयोगी बन सकते हैं।

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