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अंबेडकर ने सबसे पहले आगाह किया था कि भक्त राजनीति में तानाशाही को जन्म देते हैं

सत्ता पक्ष और विपक्ष द्वारा एक-दूसरे पर संविधान को ताक पर रखने के आरोप इन दिनों आम हो चले हैं. ये आरोप-प्रत्यारोप राजनीतिक छींटाकशी का हिस्सा हैं या फिर इनमें कोई सच्चाई है, यह एक अलग बहस का विषय है. फिलहाल इस सब के बीच यह जानना महत्वपूर्ण है कि खुद संविधान निर्माता ने भारतीय लोकतंत्र के लिए कौन से बड़े खतरे देखे थे. डॉ भीमराव अंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में दिए अपने भाषण में भारतीय लोकतंत्र के लिए तीन बड़े खतरे बताए थे. ताज्जुब की बात है कि ये सभी परिस्थितियां अतीत में देश देख चुका है. वर्तमान में भी इसके छिटपुट उदाहरण मौजूद हैं. ADVERTISEMENT उनकी पहली चेतावनी जनता द्वारा सामाजिक-आर्थिक लक्ष्य हासिल करने के लिए अपनाई जाने वाली गैरसंवैधानिक प्रक्रियाओं पर थी. अपने भाषण में अंबेडकर सामाजिक-आर्थिक लक्ष्यों की प्राप्ति में संविधान प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग जरूरी बताते हुए कहते हैं, ‘इसका मतलब है कि हमें खूनी क्रांतियों का तरीका छोड़ना होगा, अवज्ञा का रास्ता छोड़ना होगा, असहयोग और सत्याग्रह का रास्ता छोड़ना होगा.’ यहां अंबेडकर यह भी कहते हैं कि लक्ष्य हासिल करने के कोई संवैधानिक तरीके न हों तब तो इस तरह के रास्ते पर चलना ठीक है लेकिन संविधान के रहते हुए ये काम अराजकता की श्रेणी में आते हैं और इन्हें हम जितनी जल्दी छोड़ दें, हमारे लिए बेहतर होगा. संविधान निर्माता की लोकतंत्र के लिए यह पहली चेतावनी कितनी सही थी, आजादी के बाद हम इसके कई उदाहरण देख चुके हैं. नक्सलवाद का उभार, जम्मू-कश्मीर का अलगाववादी आंदोलन, उत्तर-पूर्वी राज्यों में चल रहे विद्रोही आंदोलन आज भले ही राष्ट्रीय स्तर पर हमारे लोकतंत्र के लिए खतरा न हों, लेकिन जहां भी ये विद्रोही गतिविधियां चल रही हैं वहां लोकतंत्र देश के बाकी हिस्सों की तरह मजबूत नहीं है. डॉ अंबेडकर के इस भाषण में दूसरी चेतावनी यह थी कि भारत सिर्फ राजनीतिक लोकतंत्र न रहे बल्कि यह सामाजिक लोकतंत्र का भी विकास करे. उनका मानना था कि यदि देश में जल्दी से जल्दी आर्थिक-सामाजिक असमानता की खाई नहीं पाटी गई यानी सामाजिक लोकतंत्र नहीं लाया गया तो यह स्थिति राजनीतिक लोकतंत्र के लिए खतरा बन जाएगी. उन्होंने अपने भाषण में कहा है, ‘राजनीति में हम एक व्यक्ति एक वोट के सिद्धांत को मान रहे होंगे. लेकिन सामाजिक और आर्थिक ढांचे की वजह से हम अपने सामाजिक-आर्थिक जीवन में एक व्यक्ति की कीमत एक नहीं मानते… हम कब तक हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे?… यदि हम लंबे अरसे तक यह नकारते रहे तो ऐसा करके अपने राजनीतिक लोकतंत्र को खतरे में डाल रहे होंगे…’ ‘धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक पूजा पतन का निश्चित रास्ता है और जो आखिरकार तानाशाही पर खत्म होता है’ हमने अभी देश के विभिन्न हिस्सों में चल रहे जिन हिंसक और अलगाववादी आंदोलनों का जिक्र किया उनके व्यापक समर्थन की एक बड़ी वजह सामाजिक लोकतंत्र विकसित न कर पाने की हमारी नाकामयाबी भी है. यदि बंगाल-आंध्र प्रदेश या केरल के किसानों को वाजिब हक मिलते तो वहां कभी-भी नक्सलवाद इतनी मजबूती से जड़ें नहीं जमा पाता. केरल ने इस दिशा में बहुत अच्छा काम किया है और इसका नतीजा है कि वहां अब नक्सली हिंसा तकरीबन खत्म हो चुकी है. देश के सबसे प्रगतिशील इस राज्य में शायद लोकतंत्र अपने सबसे बेहतर स्वरूप में है. ADVERTISEMENT अपने इसी भाषण में डॉ अंबेडकर लोकतंत्र के लिए एक तीसरा खतरा बताते हैं और जो वर्तमान राजनीति में बिल्कुल साफ-साफ देखा जा सकता है. अंबेडकर ने संविधान सभा के माध्यम से आम लोगों को चेतावनी दी थी कि वे किसी भी राजनेता के प्रति अंधश्रद्धा न रखें नहीं तो इसकी कीमत लोकतंत्र को चुकानी पड़ेगी. दिलचस्प बात है कि उन्होंने यहां राजनीति में सीधे-सीधे भक्त और भक्ति की बात की है. वे अपने भाषण में कहते हैं, ‘महान लोग, जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश को समर्पित कर दिया उनके प्रति कृतज्ञ रहने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन कृतज्ञता की भी एक सीमा है… दूसरे देशों की तुलना में भारतीयों को इस बारे में ज्यादा सतर्क रहने की जरूरत है. भारत की राजनीति में भक्ति या आत्मसमर्पण या नायक पूजा दूसरे देशों की राजनीति की तुलना में बहुत बड़े स्तर पर अपनी भूमिका निभाती है. धर्म में भक्ति आत्मा की मुक्ति का मार्ग हो सकता है लेकिन राजनीति में, भक्ति या नायक पूजा पतन का निश्चित रास्ता है और जो आखिरकार तानाशाही पर खत्म होता है.’ इतिहासकार रामचंद्र गुहा अपने एक आलेख में कहते हैं कि अंबेडकर ने उस समय गांधी, नेहरू और सरदार पटेल के लिए जनता में अंधश्रद्धा देखी थी. इस स्थिति में ये नायक किसी सकारात्मक आलोचना से

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