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कांटे ही कांटे हैं मायावती की एकला चलो की राह में…..

नीरज श्रीवास्तव

लखनऊ,(नवसत्ता ):- अपने राजनीतिक जीवन के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहीं बसपा सुप्रीमों मायावती ने आज यहां पार्टी पदाधिकारियों की बैठक कर एक बार फिर ऐलान किया कि वे आगामी लोकसभा चुनाव में न तो एनडीए के साथ जाएंगी और न ही इंडिया के साथ। उनकी पार्टी अकेले ही चुनाव लड़ेंगी । हालांकि पार्टी के कई नेताओं को भी पार्टी हाईकमान के यह कदम आत्मघाती लग रहा है।

बसपा का सियासी आधार उत्तर प्रदेश से लेकर अलग-अलग राज्य में खिसकता जा रहा है। 2014 के लोकसभा चुनाव और 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में बसपा को अकेले मैदान में उतरना महंगा पड़ चुका है। 2014 में बसपा अपना खाता नहीं खोल सकी थी और 2022 में पार्टी का एक ही विधायक जीत सका है। हाल ही में सम्पन्न उपचुनाव में भी उनकी अपील बेअसर साबित हुई है। बसपा अपने सियासी इतिहास में सबसे बुरे दौर से गुजर रही है। 2019 में गठबंधन करने का फायदा बसपा को मिला था और 10 सांसद जीतने में कामयाब रहे थे।

इसके बाद भी बसपा का अकेले चुनावी मैदान में उतरने जा रही है, जो मायावती के लिए सियासी तौर पर मंहगा पड़ सकता है। वह भी तब जबकि सियासी तौर पर अब बसपा को भाजपा की बी टीम के रूप में माना जा रहा है। इस समय देश और उत्तर प्रदेश की सियासत दो धुर्वों में बंटी हुई है और भी मतदाता दो हिस्सों में बंट गए हैं। वोटरों का एक धड़ा वो है, जो पीएम मोदी या बीजेपी को सत्ता में बनाए रखना चाहता है तो दूसरे वोटर वो है, जो हर हाल में बीजेपी को सत्ता से बाहर करना चाहता है। ऐसे में मतदाता किसी तीसरे विकल्प को नहीं चुन रहा है। दिल्ली से लेकर कर्नाटक, पंजाब और यूपी के विधानसभा चुनाव में वोटिंग पैटर्न ऐसे ही दिखें है। 2024 का चुनाव भी इसी वोटिंग पैटर्न पर होनी की संभावना है. ऐसे में मायावती का अकेले चुनाव लड़ना जोखिम भरा कदम हो सकता है। यूपी के विधानसभा चुनाव में भी बसपा को इसी खामियाजा भुगतना पड़ा है।

देश के दलित समुदाय में सामाजिक चेतना जगाने और राजनीतिक अधिकारों के लिए कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया था। पिछले साढ़ तीन दशक में बसपा ने यूपी की सत्ता में कई बार विराजमान हुई तो कई राज्यों में विधायक और सांसद चुने गए। 2012 के बाद से लगातार बसपा का राजनीतिक जनाधार खिसकता जा रहा है। बसपा का दलित कोर वोटबैंक भी छिटक चुका है और सिर्फ जाटव वोटर ही साथ है। ऐसे में मायावती दलित और मुस्लिम समीकरण बनाने की कवायद में जुटी हैं, लेकिन मुस्लिम मतदाता सपा और कांग्रेस के साथ खड़ा नजर आ रहा है। इतना ही नहीं दलित नेता चंद्रशेखर भी मायावती के लिए यूपी में राजनीतिक चुनौती बनते जा रहे हैं। ऐसी स्थिति में बसपा की एकला चलो की राह में कांटे ही कांटे नजर आ रहे हैं। दबी जुबान में में पार्टी के नेता भी यह बात मान रहे हैं।

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