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कैसे मूंद लूं आंखें,इंसान हैं साहब जानवर नहीं…

गांवों में काउंसलिंग कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए

एस एच अख्तर
लखनऊ,नवसत्ता : नदियों में बिखरी लाशें। सड़कों पर राम नाम सत्य के नारे। शमशानों में लंबी लाइन लगाए अपनी बारी की प्रतीक्षा करते पार्थिव शरीर। यह पुरानी बात है। ताज़ा हालात तो ग्रामीण इलाकों की बेहाल होती तस्वीरों से जुड़े हैं। जौनपुर के खुटहन स्वास्थ्य केंद्र से जुड़े गावों में 30 दिन के भीतर 25 ग्रामीण सर्दी जुकाम से मर गए। रायबरेली, उन्नाव,मेरठ और सहारनपुर के कई गांवों में कमोबेश यही हालात हैं।उन्नाव में डॉक्टर से लेकर चिकित्साकर्मी तक सामूहिक इस्तीफा दे रहे हैं। जौनपुर की आशाबहू कैमरे पर इंटरव्यू दे रही है कि वैक्सीन लगाने के लिए कहा जा रहा है,हम लोग लगा रहे हैं,लेकिन असली वैक्सीन चीन पाकिस्तान भेज कर यहां नकली लगाने से कोई फायदा नही है।
यह जो हालात हैं इन्हें कैसे नज़र अंदाज़ कर दें। ग्रामीण इलाकों में लोग मर रहे हैं। प्रशिक्षण का स्तर यह कि खुद आशा बहू को वैक्सीन पर विश्वास नहीं। सख्ती करने पर स्वास्थ्यकर्मी इस्तीफे की धमकी देते हैं। तो क्या मान लिया जाए कि सरकार की सख्ती और कोरोना रोकथाम के लिए लगी आईएएस अधिकारियों की फौज केवल प्रेस नोट तक सीमित है। ज़मीनी स्तर पर अभी भी आंकड़ों का खेल चल रहा है। रायबरेली ज़िले में हर रोज़ ग्रामीण इलाकों में डोर टू डोर सर्वे के दिये जा रहे आंकड़े कागज़ी खाना पूर्ति है। सर्वे के लिए लगाई गई टीम एक दी फ़ोटो खिंचवा कर टीकाकरण के पुराने रजिस्टर से नाम लेकर ताज़ा सर्वे लिस्ट बना रही है। काग़ज़ों के पेट भरने का प्रचलित जुमला अधिकारियों से लेकर सरकार तक को सूट करता है। यही वजह है कि जिलों से हर रोज़ राजधानी पहुंचने वाली रिपोर्ट में गाँव का मौसम गुलाबी नज़र आता है।क्या होना चाहियेदरअसल होना यह चाहिए था कि ग्रामीण इलाकों में आनन फानन कथित झोलाछाप डाक्टरों का पीएचसी सीएचसी स्तर पर प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाकर उन्हें मानदेय आधार पर गांव में चिकित्सा के लिए अधिकृत किया जाना चाहिए था।गांवों में ट्रेसिंग और ट्रैकिंग की जगह पर सीधे स्वास्थ्यकर्मियों के ज़रिये दवा का वितरण कराया जाना चाहिए था। एनजीओ की मदद से और स्थानीय संभ्रांत लोगों की टीम बनाकर गांवों में काउंसलिंग कार्यक्रम शुरू किए जाने चाहिए थे। क्योंकि अभी भी गांव में लोग सामाजिक बहिष्कार के डर से कोरोना संक्रमण का ठप्पा खुद पर लगने नहीं देना चाहते हैं।शहरों में भले कुछ हालात बेहतर नज़र आ रहे हों लेकिन ग्रामीण इलाकों स्थिति खराब हो रही है जिन्हें बयानबाज़ी से नहीं बल्कि गंभीरता से काम किये जाने पर ही संभाला जा सकेगा। सोशल मीडिया पर आती खबरें गवाह हैं कि अब लोग चुप न रह कर इंसानियत के नाते जानकारी शेयर कर रहे हैं,और जानकारियां ही स्थिति के भयावह होने की गवाह हैं। ग्रामीण इसे लेकर मुखर भी हैं क्योंकि वह पिंजड़े से निकाल कर काटे गए मुर्गे की तरह अपनी बारी आने को लेकर अनजान नहीं हैं।

प्रदेश भर में आयुष चिकित्सकों के अलावा ग्रामीण इलाकों में ’बंगाली डॉक्टर’ समेत दवा की जानकारी रखने वाले लोगों का नेटवर्क है। सरकार इन्हें झोलाछाप कहती है। इन्हें इलाज करने का कानूनी हक नहीं है। लेकिन यही वह नेटवर्क है जो आज भी ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य समस्याओं से निजात दिलाने की नींव हैं। पूर्व में ऐसे ही लोगों को अतिरिक्त प्रशिक्षण देकर रूरल मेडिकल प्रैक्टिशनर के नाम पर आरएमपी यानि रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिशनर बनाया जाता था। इन्हे प्राथमिक उपचार का हक़ हासिल था। पिछले 15 सालों से आरएमपी दिए जाने का प्राविधान राज्य सरकार ने खत्म कर दिया है। इस कोरोनाकाल में यदि फार्मेसी या अन्य पैरामेडिकल डिप्लोमा धारकों को टेम्परेरी आरएमपी दे दिया जाए तो नियमित स्वास्थ्य कर्मियों पर काम का बोझ कम होगा,ग्रामीणों को त्वरित कोरोना इलाज मिलने के साथ ही इन कथित झोलाछाप को रोजगार भी हासिल होगा।

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