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डॉक्टर्स डे विशेष:जानिए अपने डॉक्टर के अनसुने किस्से,मिलिए रायबरेली के प्रख्यात ऑर्थो सर्जन डॉ. संजीव जायसवाल से

गरिमा

कई बार मेरे पास बहुत सारे क्रिटिकल केस आए, एक बार मेरे पास एक एक्सीडेंटल केस आया था जिसमें मरीज के पैर में मल्टीपल फ्रैक्चर हुआ था। ऐसा लगता था कि अब वह कभी भी अपने पैरों पर चल नहीं पाएगा। वह मानसिक रूप से भी हताश हो चुका था। मैंने उसके इलाज के साथ-साथ उसे भावनात्मक और मानसिक बल दिया और इस प्रकार एक-डेढ़ महीने में ही वह अपने दोनों पैरों से चलने में समर्थ हो गया……

रायबरेली,नवसत्ता: डॉक्टर्स डे स्पेशल की इस श्रंखला में आज जिले के प्रख्यात ऑर्थो सर्जन डॉ. संजीव जायसवाल ने डॉक्टर बनने से अब तक के सफर को साझा करते हुए बताया कि मेरे माता और स्व० पिता दोनों डॉक्टर थे, दोनों के अपने पेशे के प्रति ईमानदारी और सेवाभाव ने हमेशा मुझे डॉक्टर बनने के लिए प्रेरित किया। मैं 1992 में यूक्रेन गया जहां एक साल राशियन भाषा सीखी फिर वही ओडेसा स्टेट मेडिकल यूनिवर्सिटी से एमबीबीएस और एमएस किया। उसके बाद मैंने अमेरिका के फिलाडेल्फिया स्टेट मेडिकल यूनिवर्सिटी से एमसीएच की पढ़ाई की। भारत आने के बाद एक साल के इंटर्नशिप के बाद मैंने अपनी क्लीनिक शुरू की जोकि आज एक अस्पताल का रूप ले चुकी है।

कॉलेज में एमबीबीएस की पढ़ाई के दौरान मैं और स्टूडेंट्स की तरह ज्यादा कही आया जाया नही करता था और अपने ध्येय को पूरा करने के लिए ज्यादातर समय पढ़ाई और अपने प्रोफेस्सोर्स के साथ बिताता था। जिनसे प्राप्त ज्ञान की वजह से मैं अपने बैच में सबसे अच्छा डिसेक्शन कर लेता था। मैने हमेशा प्रैक्टिकल पर जोर दिया और डेडबॉडीज पर जितना ज्यादा से ज्यादा हो सका अपना हाथ साफ किया और अपने अन्य साथियों की भी पढ़ाई और प्रैक्टिकल में हमेशा मदद करता था।

जिला अस्पताल रायबरेली में इंटर्नशिप खत्म होने के बाद मेरे जीवन का जो सबसे पहला महत्वपूर्ण आपरेशन था वो कानपुर में घुटना रिप्लेसमेंट का था जिसमे मैने अपने एक सीनियर को असिस्ट किया था। महत्वपूर्ण इसलिए भी था क्योंकि ठीक उसी दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व० अटल बिहारी बाजपेयी अपने घुटनो के रिप्लेसमेंट के लिए अमेरिका गए हुए थे।

मेडिकल प्रोफेशन में आने के बाद कई बार मेरे पास बहुत सारे क्रिटिकल केस आए, एक बार मेरे पास एक एक्सीडेंटल केस आया था जिसमें मरीज के पैर में मल्टीपल फ्रैक्चर हुआ था। ऐसा लगता था कि अब वह कभी भी अपने पैरों पर चल नहीं पाएगा। वह मानसिक रूप से भी हताश हो चुका था। मैंने उसके इलाज के साथ-साथ उसे भावनात्मक और मानसिक बल दिया और इस प्रकार एक-डेढ़ महीने में ही वह अपने दोनों पैरों से चलने में समर्थ हो गया।

अंत में डॉ संजीव ने कहा कि आज डॉक्टर और मरीज के बीच का बांड खत्म होता नजर आता है। लोग अपने मरीज के साथ हुई अनहोनी के लिए डॉक्टर को जिम्मेदार ठहराते हैं और उनके साथ दुर्व्यवहार तथा मारपीट तक करते हैं जबकि एक डॉक्टर मरीज के इलाज में अपना पूरा जोर लगा देता है। हम लोग समाज के एक प्रतिष्ठित वर्ग से ताल्लुक रखते हैं और समाज में सेवा देने का कार्य करते हैं तो कृपया हम डॉक्टर्स का सम्मान बनाकर रखें और हमारे साथ अभद्र व्यवहार ना करें।

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