सुप्रीम कोर्ट की बेंच, जिसमें जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची शामिल थे, ने सुनवाई के दौरान चुनाव आयोग के वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी से स्पष्ट निर्देश दिए। कोर्ट ने कहा कि 1 अगस्त 2025 को जारी मसौदा मतदाता सूची और 30 सितंबर को प्रकाशित अंतिम सूची की तुलना कर हटाए गए 3.66 लाख नामों का पूरा विवरण पेश किया जाए। जस्टिस बागची ने जोर देकर कहा, “मृतकों या प्रवासियों के नाम हटाना उचित है, लेकिन नियम 21 और मानक संचालन प्रक्रिया (SOP) का सख्ती से पालन होना चाहिए।” कोर्ट ने यह भी सवाल उठाया कि अंतिम सूची में जोड़े गए 21.53 लाख नामों में से कितने नए मतदाताओं के हैं और कितने पुराने हटाए गए नामों की बहाली हैं, ताकि भ्रम की स्थिति न बने।
चुनाव आयोग ने कोर्ट को बताया कि हटाए गए नामों पर अब तक कोई शिकायत या अपील दर्ज नहीं हुई है। द्विवेदी ने सफाई दी कि अधिकांश जोड़े गए नाम 18-19 वर्ष के नए मतदाताओं के हैं, हालांकि कुछ पुराने मतदाताओं के नाम भी बहाल किए गए। लेकिन विपक्ष इस दावे से असहमत है। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के सांसद मनोज झा ने कहा, “SIR के नाम पर अल्पसंख्यक, महिलाओं और गरीब वोटरों को निशाना बनाया जा रहा है। सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप ही अब लोकतंत्र की रक्षा करेगा।” एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की याचिका में दावा किया गया है कि SIR से संविधान के अनुच्छेद 326 का उल्लंघन हो रहा है, जो हर योग्य नागरिक को मतदान का अधिकार देता है।
SIR प्रक्रिया की पृष्ठभूमि को समझें तो यह विवाद जून 2025 से सुलग रहा था। जनवरी 2025 की मूल सूची में बिहार के 7.89 करोड़ मतदाता थे। SIR के तहत घर-घर सत्यापन अभियान चला, जिसमें मृत, स्थायी रूप से स्थानांतरित (प्रवासी), अनट्रेसेबल और डुप्लिकेट नाम हटाए गए। 1 अगस्त की मसौदा सूची में कुल 65 लाख नाम काटे गए, लेकिन 21.53 लाख नए नाम जोड़े गए। 30 सितंबर की अंतिम सूची में कुल मतदाता 7.42 करोड़ रह गए—यानी मूल सूची से 47 लाख की कमी, लेकिन मसौदा से 17.87 लाख की शुद्ध बढ़ोतरी। आयोग के आंकड़ों के अनुसार, 55% हटाव प्रवास/अनट्रेसेबल, 34% मृत्यु और 10.8% डुप्लिकेट के कारण हुए। हालांकि, कुछ जिलों (खासकर मुस्लिम बहुल क्षेत्रों) में 10-15% तक नाम कटने से सवाल उठे हैं।
यह पहला मौका नहीं है जब सुप्रीम कोर्ट ने SIR पर हस्तक्षेप किया। अगस्त 2025 में कोर्ट ने 65 लाख हटाए गए नामों की सूची वेबसाइट पर अपलोड करने, कारण बताने और BLO कार्यालयों में चस्पा करने का आदेश दिया था। जस्टिस बागची ने तब कहा था, “मतदाता को जानने का अधिकार है। पारदर्शिता के बिना विश्वास कैसे बनेगा?” कोर्ट ने आधार को 12वें वैध दस्तावेज के रूप में मानने का सुझाव भी दिया। कार्यकर्ता योगेंद्र यादव ने उदाहरण दिए कि कई जीवित व्यक्ति ‘मृत’ चिह्नित हो गए, जिससे परिवारों में भ्रम फैला।
बिहार की राजनीति में यह मुद्दा NDA और महागठबंधन के बीच नया युद्धक्षेत्र बन गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की सरकार SIR को ‘सुधार अभियान’ बता रही है, लेकिन तेजस्वी यादव ने इसे ‘वोट चोरी का षड्यंत्र’ कहा। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर #SIRScam और #VoteRightsBihar जैसे हैशटैग ट्रेंड कर रहे हैं, जहां यूजर्स आयोग की वेबसाइट के लिंक शेयर कर रहे हैं। AIMIM विधायक अख्तरुल इमान ने आरोप लगाया, “यह अल्पसंख्यकों के खिलाफ साजिश है, युवाओं को वोट डालने से रोका जा रहा।”
लोकतंत्र की रक्षा के लिहाज से सुप्रीम कोर्ट का यह निर्देश मील का पत्थर है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि हटाए नामों की सूची BLO कार्यालयों में प्रदर्शित हो और अपील प्रक्रिया सरल बने। विपक्ष की मांग है कि चुनाव स्थगित कर दोबारा सत्यापन हो। आयोग को सलाह दी जाती है कि स्वतंत्र ऑडिट करवाए और डेटा को सर्चेबल फॉर्मेट में सार्वजनिक करे। बिहार के 7.42 करोड़ मतदाता, जिसमें 14 लाख नए वोटर शामिल हैं, इस चुनाव में बदलाव ला सकते हैं। लेकिन SIR का यह साया अगर बना रहा, तो यह लोकतंत्र पर काला धब्बा होगा।
9 अक्टूबर की अगली सुनवाई में कोर्ट का फैसला बिहार चुनावों का भविष्य तय करेगा। यह मामला पूरे देश को संदेश देता है: वोटर का अधिकार अक्षुण्ण रहना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की यह सक्रियता न केवल बिहार, बल्कि भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने वाली है। आयोग, सरकार और राजनीतिक दलों को मिलकर पारदर्शिता सुनिश्चित करनी होगी, वरना इतिहास हमें क्षमा नहीं करेगा।