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अमेरिका का 25% टैरिफ भारत की विदेश नीति की नाकामी की खुली चिट्ठी है!

नीरज श्रीवास्तव

लखनऊ, नवसत्ता : भारत की तथाकथित “विश्वगुरु” वाली विदेश नीति की सच्चाई अब ज़मीन पर दिखने लगी है — और वह भी करारी चोट के साथ। अमेरिका, जिसे मोदी सरकार “सबसे भरोसेमंद रणनीतिक साझेदार” बताती नहीं थकती, उसने भारत के खिलाफ 25% आयात शुल्क ठोककर हमारी कूटनीति की पोल खोल दी है। यह एक साधारण आर्थिक फैसला नहीं है, यह एक तमाचा है — सीधा उस नीति पर, जो केवल फोटो सेशन, घोषणाओं और आत्मप्रशंसा की घुट्टी पर टिकी है।

कहा गया था कि मोदी- ट्रंप की केमिस्ट्री अभूतपूर्व है, कि भारत-अमेरिका संबंध “गोल्डन पीरियड” में हैं। लेकिन जब अमेरिकी व्यापार लॉबी ने दबाव बनाया, तो ट्रंप प्रशासन ने भारत को भी उसी श्रेणी में डाल दिया जिसमें वह चीन या वियतनाम को रखता है — एक प्रतियोगी, एक खतरा, एक रुकावट। और भारत? भारत मूकदर्शक बना देखता रहा, जैसे कोई निरीह छात्र परीक्षा में पेपर देखकर ठिठक जाए।

इस टैरिफ से भारतीय निर्यातकों को सीधा नुकसान होगा। हजारों MSMEs, लाखों मज़दूर और छोटे कारोबारी प्रभावित होंगे। लेकिन उससे बड़ा नुकसान है भारत की वैश्विक प्रतिष्ठा और कूटनीतिक विश्वसनीयता का। जब दुनिया देखती है कि भारत, जो UN से लेकर QUAD तक में बड़ी-बड़ी बातें करता है, अपने सबसे घनिष्ठ साझेदार से भी व्यापारिक सम्मान और स्थायित्व नहीं सुनिश्चित कर सकता, तो उसकी गंभीरता पर सवाल उठते हैं।

वास्तविकता यह है कि भारत की विदेश नीति कृत्रिम चमक और प्रचार की सुनियोजित मशीनरी बन चुकी है। अमेरिका के साथ FTA की बात सालों से हवा में है, लेकिन ज़मीनी सच्चाई यह है कि भारत आज भी दुनिया के बड़े देशों के साथ टिकाऊ व्यापार समझौते करने में विफल है। RCEP से डर के मारे भागना, EU के साथ FTA में बार-बार रुकावट, और अब यह अमेरिकी टैरिफ — क्या यही है “विश्वगुरु” का आत्मविश्वास?

सबसे चिंताजनक बात यह है कि सरकार इस झटके को भी जनता से छिपाने की कोशिश करेगी। मुख्यधारा का मीडिया इस खबर को या तो गायब कर देगा या ‘तकनीकी मामला’ बता कर रफा-दफा कर देगा। लेकिन सच्चाई यह है कि यह एक नीतिगत फजीहत है, एक रणनीतिक असफलता है, और एक चेतावनी है — वह भी सबसे ऊंची आवाज़ में।

क्या अमेरिका ने यह फैसला अचानक ले लिया? नहीं। क्या भारत को इसकी भनक नहीं थी? थी। फिर भी, विदेश मंत्रालय हाथ पर हाथ धरे बैठा रहा। प्रधानमंत्री कार्यालय, जो हर चीज़ पर नियंत्रण चाहता है, इस मामले में या तो गफलत में था या लापरवाह। न कोई बैकचैनल दबाव काम आया, न कोई कूटनीतिक हस्तक्षेप। यह है “न्यू इंडिया” की वैश्विक प्रभावशीलता?

साफ है, जब अमेरिका जैसा “मित्र” भी भारत को अपने हितों के लिए खुलेआम दंडित करने में संकोच नहीं करता, तब यह मान लेना चाहिए कि भारत की विदेश नीति में कुछ बुनियादी खामी है — और वह खामी है नीति की गहराई की जगह दिखावे पर निर्भरता, और बातचीत की जगह चुप्पी को रणनीति मानने की भूल।

अब अगर भारत सिर्फ बयान जारी कर शांत बैठता है, तो दुनिया समझ जाएगी कि यह देश केवल मंचों पर तालियां बजाने और वीज़ा छूट के लिए मिन्नतें करने तक सीमित है। टैरिफ का यह फैसला बताता है कि भारत अब भी वाशिंगटन की मेज़ पर एक ‘आसान मोहरा’ समझा जा रहा है, न कि बराबरी का साझेदार।

यह वक़्त है सख्त आत्ममंथन का। अगर अभी भी सरकार यह मान रही है कि “सब ठीक है”, तो आने वाले दिनों में और बड़ी चोटें तय हैं — न केवल व्यापार में, बल्कि प्रतिष्ठा में भी।

यह टैरिफ सिर्फ आर्थिक वार नहीं है, यह भारत की विदेश नीति की आत्मा पर लगी खरोंच है। और यह खरोंच, अगर अभी नहीं सुधारी गई, तो इतिहास इसे केवल असफलता नहीं, नासमझी की संज्ञा देगा।

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