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मायावती की महारैली 9 अक्टूबर को : क्या बीएसपी फिर लहरा पाएगी बहुजन का परचम?

नीरज श्रीवास्तव
लखनऊ,नवसत्ताः उत्तर प्रदेश की राजनीति में बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) कभी दलितों और वंचितों की सशक्त आवाज थी। कांशीराम की विरासत और मायावती के नेतृत्व में इस दल ने न केवल सत्ता हासिल की, बल्कि सामाजिक समीकरणों को भी बदला। लेकिन पिछले एक दशक में बीएसपी का प्रभाव कम हुआ है। ऐसे में, 9 अक्टूबर गुरूवार को लखनऊ में होने वाली मायावती की ‘मेगा रैली’ राजनीतिक हलकों में चर्चा का विषय बनी हुई है। कांशीराम की पुण्यतिथि पर आयोजित यह रैली क्या बीएसपी को पुनर्जन्म देगी? बीएसपी के गौरवशाली इतिहास को देखते हुए, इस रैली का उत्तर प्रदेश की राजनीति पर प्रभाव रोचक और निर्णायक हो सकता है।

बीएसपी का इतिहास सामाजिक क्रांति और राजनीतिक उथल-पुथल का प्रतीक है। 1984 में कांशीराम ने दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदायों को एकजुट करने का सपना देखा। ‘बहुजन’ की अवधारणा ने समाज के हाशिए पर पड़े लोगों को नई पहचान दी। 1993 में बीएसपी ने समाजवादी पार्टी (एसपी) के साथ गठबंधन कर 67 सीटें जीतीं और मायावती पहली बार मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन 2007 का विधानसभा चुनाव बीएसपी का स्वर्णिम काल था, जब ‘सर्वजन हिताय’ नारे के साथ ब्राह्मण-दलित गठजोड़ ने 206 सीटें दिलाईं। मायावती की सरकार ने अंबेडकर ग्राम योजना और दलित स्मारकों जैसे कदम उठाए, जिन्होंने दलित समुदाय में उनकी पैठ को और मजबूत किया। हालांकि, ताज कॉरिडोर जैसे विवादों ने उनकी छवि को नुकसान भी पहुंचाया।

2012 के बाद बीएसपी का ग्राफ गिरता चला गया। 2012 में 80 सीटें, 2017 में 19 और 2022 में केवल 1 सीट। 2024 के लोकसभा चुनावों में बीएसपी खाता भी नहीं खोल सकी। इसके कई कारण रहे: गठबंधन रणनीति की असफलता, संगठनात्मक कमजोरी और भाजपा की हिंदुत्व लहर। मायावती का अकेले चुनाव लड़ने का जिद्दी फैसला वोटों के बंटवारे का कारण बना। दलित वोट, खासकर गैर-जाटव और युवा, भाजपा की ओर खिसक गए। बीएसपी का वोट शेयर 2017 के 22% से घटकर 2022 में 12.88% रह गया। मायावती की जनसभाओं से दूरी और चुप्पी ने कार्यकर्ताओं का हौसला तोड़ा। ऐसे में, 9 अक्टूबर की रैली बीएसपी के लिए ‘करो या मरो’ का क्षण है।

लखनऊ के रामाबाई रैली मैदान में होने वाली यह रैली कई मायनों में खास है। मायावती अपने भतीजे आकाश आनंद को युवा चेहरा बनाकर पेश करेंगी, जो 2024 में पार्टी महासचिव बने थे। यह रैली कांशीराम की विरासत को पुनर्जनन का मंच बनेगी। मायावती संभवतः एसपी और कांग्रेस पर ‘जातिवादी पाखंड’ का आरोप लगाएंगी, जैसा कि हाल ही में उनके बयानों से जाहिर हुआ। यह रैली दलितों, खासकर जाटव समुदाय को एकजुट करने का प्रयास होगी। अगर रैली में एक लाख से अधिक लोग जुटते हैं, तो यह बीएसपी की वापसी का शंखनाद होगा।

उत्तर प्रदेश की राजनीति पर इसका प्रभाव गहरा हो सकता है। पहला, यह दलित वोटों को फिर से बीएसपी की ओर मोड़ सकता है। भाजपा ने ‘सबका साथ’ नारे से दलितों को लुभाया, लेकिन राम मंदिर और आरक्षण जैसे मुद्दों पर मायावती की भावनात्मक अपील असर डाल सकती है। दूसरा, यह एसपी के लिए चुनौती होगी। अखिलेश यादव का पीछड़ा-मुस्लिम गठजोड़ दलित वोटों पर निर्भर है। अगर बीएसपी 10-15% वोट भी हासिल करती है, तो 2027 के चुनाव त्रिकोणीय हो जाएंगे। खासकर पूर्वांचल और बुंदेलखंड में बीएसपी का प्रभाव बढ़ सकता है। तीसरा, यह रैली कार्यकर्ताओं में जोश भर सकती है, जो लंबे समय से मायावती की सक्रियता का इंतजार कर रहे हैं।

लेकिन चुनौतियां कम नहीं हैं। बीएसपी का संगठन कमजोर है; कई कार्यकर्ता भाजपा या एसपी में चले गए। आकाश आनंद की नेतृत्व क्षमता और स्वीकार्यता साबित होनी बाकी है। मायावती की उम्र (69) और स्वास्थ्य भी सवाल उठाते हैं। साथ ही, सोशल मीडिया और युवा मतदाताओं तक पहुंच में बीएसपी पिछड़ रही है। फिर भी, बीएसपी का इतिहास बताता है कि यह दल असंभव को संभव कर सकता है। 2007 की जीत इसका उदाहरण है। अगर मायावती इस रैली में ‘बहुजन चेतना’ जगा पाईं, तो दलित-मुस्लिम गठजोड़ फिर से उभर सकता है।

9 अक्टूबर की रैली बीएसपी के लिए ‘अब या कभी नहीं’ का अवसर है। उत्तर प्रदेश, जहां 21% आबादी दलित है, में यह रैली राजनीतिक भूचाल ला सकती है। लेकिन यह तभी संभव होगा जब मायावती कांशीराम के ‘जाति तोड़ो, समाज जोड़ो’ के मंत्र को नए रंग में पेश करें। अगर यह रैली केवल स्मृति-सभा बनकर रह गई, तो बीएसपी का भविष्य और धुंधला हो जाएगा। 2027 के चुनावों में बहुजन का परचम फिर लहराएगा या नहीं, यह इस रैली की सफलता पर निर्भर करता है। मायावती का यह दांव उत्तर प्रदेश की सियासत को नया मोड़ दे सकता है।

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