डॉ० मत्स्येन्द्र प्रभाकर
देश-विदेश में समस्याएँ बहुत हैं. समाधान की कोशिशें लगातार होती आयी हैं, गति भले धीमी या तेज रही हो. किन्तु कल्पना कीजिए- देश में पेट्रोल की कीमतें अभी डेढ़ सौ (150) रुपये प्रति लीटर हो जाएँ तो क्या ‘क्रान्ति’ हो जाएगी? या, यह (पेट्रोल) 80 रुपये प्रति लीटर (जून, 2014 के भाव) बिकने लगे तो चतुर्दिक वाह-वाह गूँजने लगेगा? भारत ‘हिन्दू राष्ट्र’ घोषित हो जाए तो सभी अनाचार समाप्त होकर चारों ओर शान्ति और सन्तोष की बयार बहने लगेगी, अथवा- अभी हर जगह अराजकता ही है? बिल्कुल नहीं! परन्तु घर-परिवार, गाँव-पञ्चायत, चौपाल, गली, नुक्कड़, चौराहों, सन्देशों, समाचारों, अखबारों, मन्दिरों-प्रवचनों, मस्जिदों-तकरीरों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों, मीडिया और सड़क से लेकर संसद तक हर समय – हर जगह जितने मुँह उतनी बातें, मुद्दे एवं मामले हैं. सोशल मीडिया पर नज़र डालिए- लगेगा कि देश में केवल ‘कोहराम’ और ‘त्राहिमाम’ है. यह एक भयानक स्थिति है! इसका इसी समाज तथा जन-जीवन पर बहुत बुरा, साथ ही नकारात्मक असर पड़ रहा है जिसका खासा बड़ा तबका बेकार की बातों में मस्त झूम रहा है. इसने कदाचित यही जिन्दगी की नियति मान ली है.
देश में बेकार तथा निठल्ले लोगों की संख्या-समस्या बढ़ी है. इसके अनेक कारण हैं. रोजगार-पेशे की कमी बढ़ती जा रही है, साथ ही लोगों में दूसरों का सहयोगी होने और सहकार की भावना लगभग समाप्त है. सही शिक्षा के अभाव में लोग अनभिज्ञ हैं कि लोकतंत्र एक ‘यांत्रिक प्रणाली’ जैसे है. इसमें हर नागरिक किसी बोल्ट, नट या औजार जैसा ही होता है. अफसोस यह कि सब ‘पशुवत आजादी’ चाहते हैं और किसी को किसी की अधीनता अस्वीकार है (सिवाय मजबूरी के छोड़कर) लेकिन सभी यह भूलते हैं कि जिस प्रणाली को अपनाया हुआ है. उसमें सभी किसी न किसी के अधीन होते हैं. यहाँ कोई ‘राजा’ नहीं होता जो स्वयं को किसी प्रकार के प्रतिबन्धों से मुक्त रखे और जिसे जो चाहे वही अधिकार दे दे. संविधान बनाने वालों में भी किसी न किसी रूप में तात्कालिकता के उपाय तलाशने की सोच-समझ हावी रही होगी! उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जैसा प्रावधान किया. उसे स्वछन्दवृत्ति के लोगों ने कुछ और ही समझ लिया है. आये दिन अदालतों से आने वाले विरोधाभासी निर्णय इसे गम्भीर, निरुपाय और अनियंत्रित बनाते जा रहे हैं.
जून 2014 में देश में पेट्रोल की कीमतें 80 रुपये प्रति लीटर के आसपास थीं. इसके मुकाबले यह आजकल (यानी साढ़े सात सालों में) सवाये से कुछ अधिक बढ़ चुका है. यह वृद्धि कुछ दिनों पहले तक करीब 30 प्रतिशत तक बढ़ गयी थी, जो कोई 12 रुपये प्रति लीटर कम हुई है. अब दूसरे क्षेत्रों- खासकर अपनी औसत आमदनी तथा सुविधाओं के बारे में सोचिए! यह औसतन हर साल 7 से 10 फीसद तक बढ़ी है; फिर इतनी हाय-तौबा क्यों? बाज़ार में जरूरी उपभोक्ता वस्तुओं के दाम हों, या अन्य साधनों, सुविधाओं की उपलब्धता; उनमें तो कहीं अधिक रफ्तार से बढ़ोतरी हुई है. ऐसे में एकतरफा दृष्टि क्यों? कोई वस्तु-विशेष किसी की व्यक्तिगत जरूरत भले न हो मगर वह परोक्ष रूप से काम उसके भी आती है। क्या कोई समाज से कटकर या अलग होकर रहता, या रह सकता है?
गौर कीजिए- वर्तमान में एक बड़ी जनसंख्या का किसी तरह की उत्पादकता में कोई योगदान, अथवा भूमिका सिफर है. दूसरी तरफ आवश्यकताएँ हर किसी की हैं और निरन्तर बढ़ती जा रही हैं. किसी न किसी तरीके और पैमाने पर साधनों, संसाधनों, सुविधाओं का शोषण सभी कर रहे हैं. फिर भी निठल्ले लोगों को लगता है कि उन्हीं के ‘कथित’ विचारों में देश की सारी समस्याओं का हल है जिनकी कहीं कोई पूछ-सुनवाई नहीं होती! यानी देश प्रकारान्तर में निठल्लों के हवाले है. हालाँकि सोशल मीडिया पर प्रसारित/अग्रेषित होने वाले अधिकांश विचार न तो उन्हें डालने, भेजने वालों के होते हैं, और न ही संवेदना एवं अनुभूति के अभाव/आधार पर हो सकते हैं क्योंकि ऐसे लोग शिक्षा का अर्थ और उद्देश्य समझ पाने में अस्मर्थ हैं; फिर ज्ञान और विवेक कहाँ से, कैसे आए? अलबत्ता, ये लोग सम्पूर्ण जन-जीवन, व्यवस्था तथा मानवता को भयानक ढंग से प्रभावित कर रहे हैं. यही हालत औद्योगिक क्रान्ति के वर्षों में पैदा हुई. तब हर तरह के मजदूरों, कामगारों के साथ उनके प्रबन्धकों को भी लगा था कि वह सारी उपलब्धि उन्हीं का कमाल है. कालान्तर में इसी सोच तथा काम में घटती रुचि ने प्रगति एवं विकास के तमाम आयामों, अध्यायों और हासिलात को नकारते हुए उनका विनाश कर दिया.
आज के निरर्थक, बेकार या अनुपयोगी किन्तु अविराम विचारों तथा अनियंत्रित होती जा रही ऐसे लोगों की भरमार की अनेक वजहें हैं. सबको समेटना दुष्कर है लेकिन यह निर्विवाद है कि लोगों की श्रम-शक्ति भले घटी हो, देश-दुनिया में मानव-शक्ति का और तेजी से इजाफा अवश्य हुआ है. अकर्मण्यता का बड़ा कारण लोगों का एकाकीपन अथवा, स्वकेन्द्रीयता, मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने वाली योजनाएँ, लोगों में बढ़ती निश्चिन्तता एवं देश-समाज के हितों के प्रति घटती दिलचस्पी है.
दरअसल, औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप कामगारों की संख्या और आधुनिक रोजगार बढ़े थे. इसने व्यापार और आधुनिक कारोबार को बढ़ाया. उत्पादन बढ़ा तो उनका उपयोग, उपभोग करने की प्रवृत्ति सायास बढ़ानी पड़ी. इसी बीच मजदूरों, कामगारों में यह गलत विचार पैदा हुआ, या थोपा गया कि उनका योगदान ही एक वर्ग को मालामाल कर रहा है, तो उनकी रुचि अधिक काम करते हुए उचित लाभ लेने की जगह अपनी मेहनत का अधिकतम मुनाफा लेने पर जा टिकी. नतीजतन कामचोरी की प्रवृत्ति बढ़ी जिसने उस दौर के अधिक लाभकारी अवसरों को गँवा दिया.
समय परिवर्तनशील है, सभी जानते हैं. पर इसके सापेक्ष होकर काम करने के बजाय उपलब्धियों को बढ़ाने तथा सहेजने के लिए उचित उपाय करने के बनिस्वत ऐसी चीजों को हड़पने की समझ अधिक घर करती गयी. ऐसे हालात को बदलने का सोच किसी न किसी हद तक अवश्य ही सञ्चार क्रान्ति की समझ-प्रेरणा का आधार रहा होगा. इसके उभरते नित-नये आयामों ने अब या तो मनुष्य को पूरी तरह से उपस्कर, यंत्र, औजार, उपकरण बना दिया है, अथवा बेकार साबित करने पर तुला है. ध्यान आवश्यक है कि इसके पीछे हमारे ही नहीं, संसार भर के नीति-नियन्ताओं और उनके सहायक तकनीकविदों (टेक्नोक्रेटों) के द्वारा यत्नपूर्वक शिक्षा को इसके सही उद्देश्यों से भटकाना रहा है. कभी ‘जगद्गुरु’ कहा जाने वाला भारत तो दूरदर्शिता के अभाव, राजनीतिक कारणों और दोहरी शिक्षा-नीति के चलते वर्तमान स्थिति को बढ़ाने का अधिक दोषी है.
देश और जन-जीवन के हर क्षेत्र में मुद्दे ही मुद्दे हैं. अच्छा जीवन और इसके लिए पानी, बिजली, स्वास्थ्य-चिकित्सा दवाएँ, डॉक्टर, शिक्षा, महँगाई- यानी उपभोक्ता वस्तुओं के बढ़ते मूल्य हों, या फिर जन-जीवन से जुड़ी कोई अन्य बात; मामला सामाजिक जीवन, धर्म-संस्कृति का हो, या क्रिकेट का, कानून-व्यवस्था, न्याय, देश की रक्षा- अनेकानेक विषय हैं. जिसे जो विषय मिलता है, रुचता है, उसी की खेती जैसा करने लग जाता है. नवीनतम उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार भारत में 825.30 मिलियन ‘नेट’ उपयोगकर्ता हैं. यह संख्या 2025 तक 900 मिलियन होने का अनुमान है. सोशल मीडिया पर फेसबुक का उपयोग करने वाले 340 मिलियन, व्हाट्सऐप के 487 मिलियन, ट्विटर के 220.10 मिलियन, इन्स्टाग्राम के 180 मिलियन और लिंकएडइन के 78 मिलियन हैं. इसके अतिरिक्त टेलीग्राम, कू आदि मीडिया मञ्चों के भी कुल करोड़ों उपयोगकर्ता हैं.
उपर्युक्त आँकड़ों की विवेचना करें तो लगेगा कि ‘असली कोहराम’ इन्हीं लोगों ने मचा रखा है. इसमें कुल 200 लाख से अधिक सेवानिवृत्त कर्मचारी तथा इनसे भी कहीं अधिक निजी क्षेत्रों में काम करने वालों की तादाद है. इनमें अधिकांश की हर तरह की जरूरतें हैं लेकिन अमूमन किसी का किसी भाँति की उत्पादकता में योगदान शून्य है. यह विचार अप्रिय अवश्य लगता है तथापि ऐसे लोग सभी साधनों, संसाधनों, सुविधाओं का उपयोग, उपभोग करते हुए उस पर दबाव बनाते हैं. यद्यपि सब के कुछ न कुछ बेहतर अनुभव हैं. विचार करना होगा कि क्या किसी तरह इनके जीवन-अनुभवों का सही उपयोग करते हुए इन्हें समाज के लिए सार्थक बनाया जा सकता है?